“समय-संयम” के साथ अपना हर काम करने वाले मनुष्यों का जीवन कभी असफल नही हो सकता। भले ही परिस्थितिवश वे संसार में कोई अनुकरणीय कार्य न भी कर पाएँ, तब भी उनका जीवन असफल नहीं कहा जा सकता। “सुख-शांतिपूर्वक” एक प्रिय जिंदगी जी लेना स्वयं ही एक बड़ी “सफलता” है। “सफलता” का मानदंड कोई बड़ा काम ही नहीं है, उसका सच्चा मानदंड है- “जीने की कला।” जो संतोषपूर्वक जिंदगी को कमनीयता के साथ जी सका है, वह निःसंदेह अपने जीवन में सफल हुआ है। एक छोर से दूसरे छोर तक जिसका जीवन एक व्यवस्थित कार्यक्रम की तरह स्निग्ध गति से न चलकर ऊबड़-खाबड़ गिरता पड़ता और उलझता- सुलझता चलता है, उसके जीवन को असफल मान लेना ही न्यायसंगत होगा।
👉 “समय” पर हर काम करने वालों की सारी शक्तियाँ उपयोग में आने पर भी सक्षम बनी रहती हैं। “समय” पर काम करने का अभ्यास एक सजग प्रहरी की तरह ही होता है, जो किसी भी परिस्थिति में मनुष्य को अपने कर्त्तव्य का विस्मरण नहीं होने देता। “समय” आते ही सिद्ध किया हुआ अभ्यास उसे निश्चित कार्य की याद दिला देता है और प्रेरणापूर्वक उसमें लगा भी देता है। “समय” आते ही उक्त कार्य योग्य शक्तियों में जागरण एवं सक्रियता आ जाती है, जिन्हें मनुष्य निरालस्य रूप से अपने काम में लगाकर उसे निर्धारित समय में ही पूरा कर लेता है। “कार्य एवं कर्तव्यों की पूर्णता ही जीवन की पूर्णता है, जो कि बिना समय- संयम एवं व्यवस्थित और नियमित क्रियाशीलता के प्राप्त नहीं हो सकती।
“समय” के प्रतिफल का सच्चा लाभ उन्हें मिलता है जो अपनी दिनचर्या बना लेते हैं और नियमित रूप से निरंतर उसी क्रम पर आरूढ़ रहने का संकल्प लेकर चलते हैं। एक दिन एक सेर घी खा लें और एक महीने तक जरा भी न खाएँ, एक दिन सौ दंड पेलें और बीस दिन तक व्यायाम का नाम भी न लें तो उस ज्वार-भाटे जैसे उत्साह के उठने व ठंडे होने से क्या परिणाम निकलेगा? “नियत समय” पर काम करने से अंतर्मन को उस “समय” वही काम करने की आदत भी पड़ जाती है और इच्छा भी होती है। चाय, सिगरेट आदि नशे, जो लोग नियमित रूप से पीते हैं उन्हें नियत समय पर उसकी तलब उठती है और न मिलने पर बेचैनी होती है। इसी प्रकार नियत समयपर कुछ काम करने का अभ्यास डाल लिया है तो उस समय वैसा करने की इच्छा होगी ।
👉 “समय” का पालन मानव-जीवन का सबसे महत्त्वपूर्ण “संयम” है। “समय” पर काम करने वालों के शरीर चुस्त, मन नीरोग तथा इंद्रियाँ तेजस्वी बनी रहती हैं। निर्धारण के विपरीत काम करने से मन, बुद्धि तथा शरीर काम तो करते हैं किंतु अनुत्साहपूर्वक। इससे कार्य में दक्षता तो नहीं ही आती है, साथ ही शक्तियों का भी क्षय होता है। किसी काम को करने के ठीक समय पर शरीर उसी काम के योग्य यंत्र जैसा बन जाता है। ऐसे समय में यदि उससे दूसरा काम कर लिया जाता है, तो वह काम लकड़ी काटने वाली मशीन से कपड़े काटने जैसा ही होगा।
“समय-संयम” “सफलता” की निश्चित कुंजी है। उसे प्राप्त करना प्रत्येक बुद्धिमान का मानवीय कर्त्तव्य है।
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“समय” का सदुपयोग पृष्ठ-३०
🪴पं. श्रीराम शर्मा आचार्य 🪴